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 पारसन्स के अनुसार सामाजिक व्यवस्था सामाजिक क्रियाओं के अन्तर्सम्बन्ध से बनती है। सामाजिक क्रियाएँ प्रेरणात्मक प्रक्रिया होती हैं। समस्त सामाजिक क्रियाएँ आवश्यकता पूर्ति, अभिप्रेरणा, विकल्पों के चयन और प्रयत्न से सम्पादित होती हैं।

पारसन्स ने अपनी पुस्तक 'The Structure of Social Action' में समाजशास्त्र के प्रमुख सिद्धान्तकारों जैसे पैरेटो, दुर्खीम, मैक्स वेबर, मिल्स आदि के सिद्धान्तों का विवेचन किया है और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उसके पूर्व के समाजशास्त्री भी सामाजिक क्रिया को उसी तरह समझते हैं जिस तरह वह अपने सिद्धान्त से समझना चाहता है। अन्य विद्वानों की व्याख्या के आधार पर सामाजिक क्रिया के संगठन को निम्नलिखित चार बिन्दुओं में रखा जा सकता है

1. सामाजिक क्रिया को निर्धारित करने में वंशानुक्रम एवं पर्यावरण के आधार होते हैं। 

2. सामाजिक क्रिया के प्रतिपादन में साध्य और साधन का आधार होता है।

3. सामाजिक किया तत्कालीन सांस्कृतिक मूल्यों द्वारा निर्धारित होती है। 

4. सामाजिक क्रिया में प्रयत्न निहित होता है।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर पारसन्स ने अपने सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त के भी चार अंग  बतलाये हैं

1. कर्त्ता लक्ष्य और वस्तुओं की ओर उन्मुख होता है।

2. कर्त्ता किस परिस्थिति में व्यवहार करता है।

3. कर्त्ता की क्रियाएँ सांस्कृतिक मूल्यों द्वारा नियन्त्रित होती हैं ।

4. कर्त्ता क्रिया करने के लिए प्रयत्न करता है या वस्तु एवं लक्ष्य की ओर उन्मुख होता है। इसमें 'प्रयत्न' होता है और प्रयत्न की प्रक्रिया में ऊर्जा का व्यय होता है।

उपरोक्त तथ्यों का एकीकरण करते हुए कहा जा सकता है कि सामाजिक क्रिया का सिद्धान्त • विचारों की वह योजना है जिसके द्वारा जीवित मानव के व्यवहारों की विवेचना की जा सकती है।

सामाजिक क्रिया का आधार कर्त्ता की आन्तरिक प्रेरणा मानी जाती है। जे० एस० मिल ने सुखवादी स्वार्थ को क्रिया का प्रेरक माना है। मैक्स वेबर का विचार, मूल्य या हित को क्रिया का कारण मानता है। पैरेटो ने व्यक्ति की विवेकशील और अविवेकशील प्रेरणाओं को क्रिया का स्रोत माना है।

इन सभी समाजशास्त्रियों के अनुसार क्रिया - आन्तरिक प्रेरणा से सम्पन्न होने वाली प्रक्रिया है। पारसन्स ने इस प्रक्रिया को एक सामाजिक क्रिया का रूप दिया है।

पारसन्स का सामाजिक क्रिया का सिद्धान्त 'कर्ता' की वस्तु तक पहुँचने की क्रिया है। कर्ता और लक्षित वस्तुएँ सर्वदा किसी परिवेश में होती हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए कर्त्ता अपने मूल्य प्रतिमान के अनुरूप प्रयत्न करता है।

उपरोक्त सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए पारसन्स ने अपनी पुस्तक में एक ऐसे सैलानी का उदाहरण दिया है जो मोटरकार लेकर मछली का शिकार करने हेतु झील की ओर जाता है। इस व्यवहार को उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार चार भागों में बाँट सकते हैं

1. मछली का शिकार लक्ष्य है- जिसके लिए व्यक्ति क्रिया करता है। 

2. मछलियाँ जहाँ हैं- परिस्थिति है।

3. कई रास्तों में एक चुनाव।

4. गाड़ी का परिचालन प्रयत्न है।

पारसन्स के अनुसार जब व्यवहार की इस तरह विवेचना की जाये उसे सामाजिक क्रिया का विश्लेषणात्मक अध्ययन कहते हैं। हम किसी कार्य को इसलिए करते हैं कि आवश्यकता से प्रेरित होते हैं जिसे निम्नलिखित सूत्र से प्रकट करते हैं

कर्त्ता- आवश्यकता- लक्ष्य


पारसन्स के अनुसार जब व्यक्ति आवश्यकता की पूर्ति हेतु लक्ष्य की ओर चलता है तो ऐसी अवस्था में उसके सामने कई विकल्प आते हैं। इन विकल्पों को उभयतोपाश के शृंग कहते हैं। जब कर्त्ता कई विकल्पों में से एक को चुन लेता है तब सामाजिक क्रिया सम्पन्न हो जाती है। पारसन्स के सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त के तीन आधारभूत तत्त्व हैं

1. सामाजिक व्यवस्था 

2. व्यक्तित्व व्यवस्था

3. सांस्कृतिक व्यवस्था

उपरोक्त तीनों आधार मिलकर सम्पूर्ण सामाजिक क्रिया को प्रतिपादित करते हैं।

 सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त के मुख्य अंग

1. कर्त्ता - पारसन्स के सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त में कर्ता का सार्वभौमिक महत्त्व है। किसी भी सामाजिक क्रिया का कर्ता एक व्यक्ति हो सकता है जिसके द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति हेतु की जाने वाली क्रिया की व्याख्या की जा सकती है। जब मनोदैहिक संगठन Ego के आधार पर अपना मूल्यांकन करता है, तो वह कर्ता हो जाता है। पारसन्स का सामाजिक क्रिया का सिद्धान्त कर्त्ता से मनोदैहिक संगठन की प्रक्रिया या उसके आन्तरिक बनावट का अध्ययन नहीं करता है बल्कि इस सिद्धान्त का सम्बन्ध कर्ता के उन अन्तर्सम्बन्धों से होता है जिसे कर्ता अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु किसी परिवेश में करता है।

2. अन्य कर्त्ता - दूसरे कर्त्ता को जब एक कर्ता सम्बोधित करता है तब सम्बोधित करने वाला कर्त्ता और दूसरा कर्त्ता इसके लिए अन्य कर्ता कहलाता है।

3. परिवेश - पारसन्स के सिद्धान्त से परिवेश का तात्पर्य भौतिक जगत् के उस बाह्य पक्ष से होता है जिसमें उसके व्यवहार की व्याख्या होती है। यही लक्ष्य प्राप्ति के प्रयत्न में एकदर्शनीय होता है। विशेष रूप से यह सामाजिक क्रिया का वह भाग होता है जिसमें कर्त्ता प्रयत्न करता है और कर्ता की क्रिया सम्पादित होती है।

पारसन्स के सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त को पूर्णरूपेण स्पष्ट करने के लिए उसके द्वारा प्रतिपादिति परिवेश की अवधारणा को स्पष्ट करना आवश्यक है। कर्ता जिन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उन्मुक्त होगा, वह परिवेश में पाये जायेंगे। परिवेश को वस्तुओं के वर्गीकरण के आधार पर भी समझा जा सकता है


(क) असामाजिक लक्ष्य - पारसन्स के अनुसार कर्त्ता और अन्य कर्ता के अलावा सभी वस्तुएँ असामाजिक लक्ष्य के अन्तर्गत आती हैं।

( ख ) भौतिक-भौतिक लक्ष्य वह लक्ष्य है जिसे काल एवं समय के अनुसार निश्चित किया जाता है, अर्थात् ये अति तीव्रता से परिवर्तित होते रहते हैं तथा जिसे अन्य समाजशास्त्री भौतिक संस्कृति कहते हैं ।

(ग) सांस्कृतिक लक्ष्य-संस्कृति के वे तत्त्व जिन्हें वंशानुक्रम के आधार पर प्राप्त किया जाता है। जैसे- कानून, विचार, अर्थबोध आदि को सांस्कृतिक लक्ष्य कहते हैं। ये चीजें सांस्कृतिक तब होती हैं जब कर्त्ता को बाह्य रूप से प्रभावित करती हैं परन्तु जब ये कर्ता के 'स्व' से सम्बन्धित रहती हैं तब सांस्कृतिक लक्ष्य नहीं होतीं।

(घ) कर्ता के उन्मेष- कोई वस्तु हमारे लिए लाभदायक एवं आवश्यक है या नहीं इसी अर्थबोध के अनुसार व्यवहार को उन्मेष कहते हैं। लक्ष्य के सन्दर्भ में किसी वस्तु का जो अर्थ होता है उसी से उन्मेष की प्रक्रिया प्रभावित होती है। का वर्गीकरण निम्नलिखित हैं


पारसन्स ने उन्मुखता की क्रिया को तीन भागों में बाँटा है -


1. इच्छा से प्रेरित कर्त्ता वस्तु की ओर बढ़ता है तो पहला स्तर संज्ञात्मक होता है। इस स्तर पर कर्त्ता केवल यह जानता है कि कोई वस्तु क्या है ?

2. दूसरे स्तर पर वस्तु के प्रति कर्त्ता का आकर्षण या विकर्षण उत्पन्न हो जाता है । वस्तु को वह पसन्द या नापसन्द करता है, यह स्तर भावनाओं का है। ·

3. तीसरे स्तर पर मूल्य या नैतिक प्रश्न उठ खड़े होते हैं, उस वस्तु की ओर बढ़ना उचित है या अनुचित है। वस्तु को अपने लिए प्राप्त किया जाये या सबके हित का ध्यान रखा जाये । पारसन्स नैतिक प्रश्न को मूल्यात्मक कहता है । इसी प्रकार उसका प्रसिद्ध ‘संरूप परिवर्त्य’ आधारित है।


संरूप परिवर्त्य


कर्त्ता के समक्ष होता है। अन्य विकल्पों के स्रोत वस्तुएँ होती हैं। कर्ता अपना विवाह अपनी मर्जी से करे या माता-पिता की इच्छा से करे। ऐसे नैतिक विकल्प कर्त्ता के अन्तर्मन में उत्पन्न होते हैं। इन्हें नैतिक विकल्प कहते हैं ।

कर्त्ता यदि दूकानदार से एक ट्रांजिस्टर खरीदने जाय और दूकानदार ट्रांजिस्टर की प्रशंसा में दो बातें कहे कि ट्रांजिस्टर अत्यन्त सुन्दर है, परन्तु टिकाऊ नहीं है। इस स्थिति में वस्तु की ओर से कर्त्ता के समक्ष दो विकल्प उत्पन्न हुए। ट्रांजिस्टर की सुन्दरता पर जाय या उसके टिकाऊपन पर जाय। इस प्रकार के विकल्पों को वस्तु की प्रकारता कहते हैं।

पारसन्स के संरचित परिवर्त्यो में से प्रथम तीन नैतिक, विकल्प कहे जाते हैं और अन्तिम दो विकल्पों को वस्तु प्रकारता कहते हैं।

1. परिणाम पक्षीय तात्कालिक सन्तुष्टि का पक्ष - कर्त्ता के समक्ष यह विकल्प इस प्रकार उत्पन्न होता है कि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति नियमों से मुक्त होकर या नियमबद्ध होकर करे। यदि वह पहला नियमबद्ध चुनता है तो वह अपनी इच्छाओं को न कम करेगा और न छोड़ेगा। ऐसा व्यक्ति A social A Moral हो जाता है। उसके समक्ष फिर कोई दूसरा विकल्प उठता ही नहीं। यदि कर्ता दूसरा विकल्प चुनता है तो उसे अपनी इच्छाओं को छोड़ना और नियम का पतन करना होता है। ऐसे ही प्राणी को समाज का सदस्य बनाना होता है। समाज के सदस्य इसी विकल्प को चुनते हैं ।

2. स्वहित बनाम परहित - कर्त्ता जब लक्ष्य की ओर अग्रसारित होता है तो उसके समक्ष यह संकल्प उत्पन्न होता है कि- (अ) कर्त्ता केवल अपने हित में कार्य करे या (ब) कर्त्ता दूसरों के हित में कार्य करे। यह विकल्प मूल्यों के विषय क्षेत्र का है। यह यदि पहला विकल्प चुनता है तो स्वार्थी और व्यक्तिवादी होगा। यदि दूसरा विकल्प चुनता है तो परार्थी त्यागी होगा। व्यक्ति जिस प्रकार के विकल्प चुनता है, उसी प्रकार की उसकी भूमिका होगी और उसके व्यक्तित्व की विशेषताएँ भी उसी प्रकार की होती हैं।

3. विशिष्टवाद बनाम सार्वलौकिक- इस विकल्प के दो पक्ष इस प्रकार हैं(अ) कर्त्ता और क्रिया द्वारा सार्वलौकिक मूल्य को लागू करे।

(ब) कुछ लोगों तक ही मूल्य को सीमित करे जैसे समस्त मानव जाति को प्रेरित करना सार्वलौकिक है। अपने देशवासियों को प्रेरित करना विशिष्टवाद है। स्कूल में आग लगने पर हेडमास्टर का यह कहना मेरा बच्चा विशिष्टवाद, स्कूल के सारे बच्चे कहाँ हैं, सार्वभौमिकवाद है। उपरोक्त तीन मूल्य की तरफ से होते हैं। इसके बाद के दोनों परिवर्त्य उद्देश्य की तरफ से उठते ।

4. गुण बनाम परिचालन-यह विकल्प वस्तु से उत्पन्न होता है। जब कर्ता वस्तु की ओर उन्मुख होता है तो उसे वस्तु में से किसी एक का चयन करना होता है। वस्तु की ओर से यह विकल्प इस प्रकार उत्पन्न होता है -

(अ) कर्त्ता द्वारा वस्तु के प्रदत्त गुण चुने जायें।

(ब) वस्तु के परिचालन या उसकी वास्तविक क्रिया को देखा जाये ।

उदाहरण—किसी वस्तु को क्रय करते समय यह प्रश्न उठता है कि उसके तड़क-भड़क पर जायें या उसकी क्रियाशीलता पर जायें । अमेरिकी समाज में विवाह की आवश्यकता पर पारसन्स ने इस विकल्प को लागू किया है कि जीवन साथी का चयन करते समय लोग उसके प्रदत्त गुणों को महत्त्व देते हैं और उसके वास्तविक व्यवहार या क्रियाओं को महत्त्व नहीं देते हैं। इसी कारण अमेरिकी समाज में विवाह असफल होता है ।

5. विशिष्टपक्षीय या व्यापक पक्षीय- यह विकल्प कर्ता द्वारा वस्तु में रुचि लेने में है। के सम्पूर्ण में रुचि ले या वस्तु के विशेष पक्ष तक रुचि सीमित रखे। जैसे वकील-मुवक्किल का सम्बन्ध। वकील मुवक्किल से मुकदमे और फीस का सम्बन्ध रखता है। यह रुचि है। माँ-बच्चे के प्रत्येक पक्ष में रुचि लेती है, यह सम्पूर्ण रुचि है। आधुनिक समाज में लोगों की रुचि विशिष्ट पक्षीय होती है। परम्परागत समाजों में Diffuse होता है।


संरूप परिवर्त्य और पारसन्स की क्रिया का परस्पर सम्बन्ध


पारसन्स के अनुसार कर्ता की सभी क्रियाएँ आवश्यकता संस्कार के कारण उत्पन्न होती हैं । जैसी उसकी. आवश्यकता होती है वैसी ही उसकी भूमिका होती है। आवश्यकता और भूमिका दोनों समाज के मूल्य से प्रभावित होती हैं।

संरूप परिवर्त्य मल्य के विकल्प हैं। इन विकल्पों का सीधा सम्बन्ध आवश्यकताओं और भूमिका से होता है। कुछ संरूप परिवर्त्य ऐसे हैं जिनका विशेष सम्बन्ध आवश्यकताओं से है कुछ का दोनों से है।

निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट होता है कि प्रतिमान मूल्य वे मूल्य विकल्प हैं जिनसे कर्ता की आवश्यकताएँ और भूमिकाएँ अर्थवान रूप से सम्बन्धित हैं। समाज के सभी कर्त्ताओं की क्रियाओं से. समाज का ताना-बाना बनता है। पारसन्स यह मानता है कि क्रिया व्यवस्था का स्वरूप अस्तित्व होता है। कर्ता की क्रियाओं से समाज की व्यवस्था निर्मित होती है।

पारसन्स का सामाजिक क्रियाओं के सिद्धान्त का मूल्यांकन 

पारसन्स की सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त के दो पक्ष है

1. सामाजिक क्रिया सर्वदा आदर्शमूलक होती है- कर्ता अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जब वस्तु की ओर उन्मुख होता है तब विकल्प के रूप में सामाजिक आदर्श तथा लक्ष्य उपस्थित होते हैं। इन विकल्पों के चुनाव के समय सामाजिक मूल्य, आदर्श और नैतिकता को ध्यान में रखना पड़ता है। इसलिए पारसन्स ने कहा है कि सामाजिक क्रिया आदर्शमूलक होती है।

2. सामाजिक क्रिया विवेकपूर्ण होती है-कर्ता कार्य के पूर्व विकल्पों और वस्तुओं का चुनाव करता है। यह चुनाव आकस्मिक नहीं होता है बल्कि साक्ष्य और साधनों का अध्ययन करके निर्धारित किया जाता है। इस चुनाव में कर्त्ता, तर्क, बुद्धि, कल्पना आदि का प्रयोग करता है, इसीलिए सामाजिक क्रिया मूलतः विवेकपूर्ण होती है।

इन दो आधारों को लेकर पारसन्स यह प्रमाणित करना चाहता है कि सामाजिक क्रिया यान्त्रिक नहीं होती। कर्त्ता कार्य सम्पादन करने की प्रक्रिया में सामाजिक आदर्शों और विवेक का प्रयोग करता है। कर्त्ता केवल उत्तेजना - प्रतिक्रिया का पुंज मात्र नहीं है। पारसन्स अपने सिद्धान्त द्वारा व्यवहारवादियों का खण्डन करना चाहता है। किन्तु वह अपने प्रयत्न में अच्छी तरह सफल नहीं हो सका है। पारसन्स द्वारा रखे गये पाँच प्रतिमानित विकल्प भी व्यवहारों को नियन्त्रित करने वाले तथ्य हैं। वास्तव में दूसरे रास्ते से पारसन्स ने व्यवहारवाद का मूल तथ्य कि व्यवहार नियन्त्रित होता है, स्वीकार कर लिया है। पारसन्स के सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त का सबसे बड़ा गुण पाँच प्रतिमानित विकल्प हैं और यही उसके सबसे बड़े दोष भी हैं। पाँच प्रतिमानों द्वारा उसने विकल्पों को प्रत्ययीकृत किया है। उसका यह प्रयत्न सराहनीय है परन्तु वास्तविक जीवन में विकल्प इतने सफल नहीं होते हैं, जिस तरह पारसन्स रखता है और व्यक्ति को हर समय स्वतन्त्रता नहीं रहती कि वह चुनाव कर सके ।


निष्कर्ष


इस प्रकार पारसन्स का सिद्धान्त यद्यपि बहुत जटिल लगता है परन्तु वह बहुत सरल है। निम्नलिखित वाक्य उसके सामाजिक क्रिया सिद्धान्त का सारांश प्रस्तुत करते हैं। "वास्तव में सामाजिक क्रिया वह इकाई है जिसमें कर्त्ता, स्थिति, लक्ष्य, मूल्य, उन्मुखता की प्रक्रिया, चुनाव और अन्तःकार्य का संचालन होना सम्मिलित है। यह प्रक्रिया साधारण समाजीकरण की प्रक्रिया भी है। "

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